भक्तराज ध्रुव - भाग 1 Renu द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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भक्तराज ध्रुव - भाग 1


स्वायम्भुव मनुके दो पुत्र थे— ‘प्रियव्रत और उत्तानपाद।’
उत्तानपाद की दो स्त्रियाँ थीं— ‘सुरुचि और सुनीति।’

सुरुचि का पुत्र था उत्तम और सुनीति का ध्रुव। राजा उत्तानपाद सुरुचि पर आसक्त थे, एक प्रकारसे उसके अधीन थे। वे चाहनेपर भी सुनीति के प्रति अपना प्रेम नहीं प्रकट कर सकते थे। ध्रुव और उत्तम की उम्र अभी बहुत थोड़ी-केवल पाँच वर्षों की थी।
राजसभा लगी हुई थी। महाराज उत्तानपाद सुरुचि के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे। उनकी गोद में उत्तम खेल रहा था और वे उसे बड़े स्नेह से दुलार रहे थे। सुनीति ने पुत्र का साज-शृंगार करके धाई के लड़कों के साथ उन्हें खेलने के लिये भेज दिया था। वे खेलते-खेलते राजसभा में आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि मेरा भाई उत्तम पिता की गोद में बैठा हुआ है, अतः उनकी भी इच्छा हुई कि मैं चलकर पिता की गोद में बैठूं। उन्होंने जाकर पिता के चरण छूए । राजा ने उनको आशीर्वाद दिया। वे अपने पिताकी गोद में बैठना ही चाहते थे कि सुरुचि ने उन्हें डाँट दिया। उसने कहा— “ध्रुव! तुम बड़े नटखट हो। जहाँ तुम्हें बैठने का अधिकार नहीं है, वहाँ क्यों बैठना चाहते हो ? इस सिंहासन पर बैठने के लिये बहुत पुण्य करने पड़ते हैं। यदि तुम पुण्यात्मा होते तो मेरे गर्भ से जन्म लेते। भाग्यहीना सुनीति के गर्भ में क्यों आते? उत्तम मेरे गर्भ से पैदा हुआ है। वह राज्य का उत्तराधिकारी है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते। यदि तुम्हें अपने पिता की गोद में बैठना हो तो जाकर तपस्या करो, भगवान् की आराधना करो और मेरे गर्भ से जन्म लो। तब दूसरे जन्म में तुम्हें यह गोद, यह सिंहासन प्राप्त हो सकता है।”
ध्रुव रोने लगे। यद्यपि वे बालक ही थे, तथापि उनमें क्षत्रिय-तेज की कमी न थी। उचित-अनुचित कुछ भी उनके मुँह से न निकला। उनकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। सुरुचि में आसक्ति होनेके कारण उत्तानपाद भी चुप रह गये। उन्होंने न तो ध्रुव को गोद में ही लिया और न समझाया ही। ध्रुव बहुत ही उदास होकर अपनी माता सुनीति के पास आये। उस समय ध्रुव के आँसू सूख गये थे। उनका चेहरा कुछ तमतमा उठा था। उनके ओंठ फड़क रहे थे। माता ने बड़े स्नेह से उन्हें गोद में बैठाकर पूछा— “बेटा! किसने तुम्हारा अपमान किया है? तुम्हारा अपराध करना तो तुम्हारे पिता का अपराध करना है। बताओ, किससे तुम्हें दु:ख पहुँचा है? तुम्हारे दुःख का कारण क्या है?” ध्रुव ने सारी बातें कहीं।
सुनीति ने लम्बी साँस लेकर कहा— “बेटा! सुरुचि का कहना सत्य है। मैं अभागिनी हूँ और तुम मेरी ही कोख से पैदा हुए हो। यदि तुम पुण्यवान् होते तो दूसरे लोग तुम्हें इस प्रकार अपमानित नहीं कर सकते, परंतु तुम सुरुचि की बातों का बुरा मत मानना। क्योंकि तुम एक ऐसी माता के गर्भ से पैदा हुए हो और उसके दूध से पुष्ट हुए हो, जिसे महाराज अपनी पत्नी कहने में भी संकोच करते हैं। सौतेली माँ होने पर भी सुरुचि ने एक बात बड़े महत्त्व की कही है। सत्य ही भगवान्‌ की आराधना किये बिना तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकती।” ध्रुव ने अपनी माता से बहुत से बालसुलभ प्रश्न किये। उन्होंने पूछा— “माँ! जब तुम दोनों ही मेरी माँ हो, तब पिताजी माता सुरुचि से ही अधिक प्रेम क्यों करते हैं ? तुमसे क्यों नहीं करते? हम दोनों ही राजकुमार हैं, फिर उत्तम उत्तम क्यों? मैं अभागा क्यों? वह क्यों राजा की गोद में बैठ सकता है और मैं क्यों नहीं बैठ सकता?”
सुनीति ने कहा—“बेटा ! उन्होंने पूर्वजन्म में बड़े-बड़े पुण्य किये हैं, तपस्या की है, भगवान्‌ की आराधना की है। इसलिये वे राजा के प्रेमास्पद हैं, वे उनकी गोद में बैठ सकते हैं। हमने तपस्या नहीं की है, उनकी आराधना नहीं की है। इसी से वह पद हमें नहीं प्राप्त होता। भगवान् विष्णु की आराधना से ही सब कुछ प्राप्त होता है। उन्होंने उनकी आराधना की है, इसलिये उन्हें सब कुछ प्राप्त है। तुम उनकी बातों से दुःखी मत होना। बेटा! वे सच कहती हैं।” अपनी माताकी बात सुनकर ध्रुव के पुराने संस्कार जाग उठे। यद्यपि उन्हें मालूम नहीं था, तथापि उनके मन में पहले की जो भक्ति-भावना थी, उस पर का परदा हट गया। वे भगवद्भजन के लिये उत्सुक हो गये।
उन्होंने सुनीति से कहा—“माता ! मैं समझता था कि पिताजी से बढ़कर और कोई नहीं है और वे मुझ पर प्रसन्न नहीं हैं तो जीवनभर मैं दुःखी ही रहूँगा। परंतु यदि उनसे भी बड़ा कोई है और सो आज मालूम हो गया कि उनसे भी बड़ा है तो आज ही मैं उसे प्रसन्न करूँगा और वह पद प्राप्त करूँगा जो अब तक किसी को प्राप्त नहीं हुआ है। तुम केवल मेरी एक सहायता करो, बस, मुझे भगवान् की आराधना करने के लिये यात्रा करने की अनुमति दे दो। मुझ पर भगवान्‌ को प्रसन्न ही समझो।” पुत्र की बात सुनकर माता का हृदय स्नेह से भर गया। उसने कहा— “बेटा! अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है। अभी तो तुम बच्चों के साथ खेलने-खाने योग्य हो। मैं तुम्हें वन में जाने की अनुमति कैसे दे सकती हूँ ? तुम्हीं मेरे प्राणाधार हो। भगवान्‌ की न जाने कितनी मनौती करके मैंने तुम्हें प्राप्त किया है। तुम घर के बाहर खेलने जाते हो तब मेरे प्राण छटपटाने लगते हैं। मैं तुम्हें वन में जाने की आज्ञा नहीं दे सकती। तुम घर में रहकर दान करो, पुण्य करो, सबका हित करो, वैरियों का भी उपकार करो, तुम पर भगवान् प्रसन्न हो जायेंगे।”
ध्रुव ने कहा— “माता! तुम्हारा कहना सत्य है तथापि मेरा हृदय अब विलम्ब सहन करने को तैयार नहीं है। मेरा कोई अनिष्ट नहीं होगा, भगवान् मेरे रक्षक हैं। माता! तुम अभागिनी नहीं, परम भाग्यवती हो। तुम्हारी कोख से पैदा होकर मैं भगवान् को प्रसन्न करूंगा। उत्तम को राजसिंहासन प्राप्त हो । उसके प्रति मेरे मन में तनिक भी द्वेष नहीं है। मैं अब किसी व्यक्ति का दिया हुआ राज्य नहीं ले सकता। मेरा सम्बन्ध तो सीधे भगवान्से होगा। आजतक मेरे माता-पिता तुमलोग थे, आज से मेरे माता पिता भगवान् विष्णु हुए।
ध्रुव की माता साधारण माता नहीं थीं, वे ध्रुव की माता थीं। उन्हें भगवान् पर विश्वास था। वे जानती थीं और उनकी दृढ़ धारणा थी कि भगवान् मेरे पुत्रकी रक्षा करेंगे। उन्होंने कहा—“बेटा! मैं तुम्हें भगवान्‌ की आराधना से नहीं रोकती। यदि मैं ऐसा करूँ तो मेरी जीभ सैकड़ों टुकड़े होकर गिर जाय। भगवान्‌ की आराधना से क्या नहीं हो सकता? आराधना से ही ब्रह्मा ब्रह्मा हुए हैं, तुम्हारे दादा स्वायम्भुव मनु ने उन्हीं को आराधना से लौकिक, पारलौकिक और मोक्षपद प्राप्त किये हैं। तुम अनन्य निष्ठा से भगवान् का आश्रय लो, वे तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे।” माता ने भगवान् पर विश्वास करके ध्रुव को अनुमति दी और अपने हाथों से गूंथकर उन्हें नीले कमलों की माला पहनायी। उनके साथ जाने के लिये अपने सैकडों आशीर्वाद भेज दिये और ध्रुव अपनी माता के चरणों का स्पर्श एवं उनकी परिक्रमा करके वहाँ से चल पड़े।
कोई भगवान्‌ की ओर चले और भगवान् उसकी सहायता न करें, ऐसा हो ही नहीं सकता। ध्रुव नगर के बाहर निकलकर आये, सोच रहे थे कि कहाँ जायँ, कहाँ भगवान् मिलें, कि इतने में ही उन्हें देवर्षि नारद के दर्शन हुए। वे अपने हाथ में वीणा लिये हुए भगवान् के सुमधुर नाम का संकीर्तन कर रहे थे। ध्रुव ने जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। नारद ने ध्रुव के सिर पर हाथ रखकर प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिया। उनसे क्या छिपा था। वे सोचने लगे, कितना तेजस्वी बालक है। अभी इसी अवस्था में इसके मन में इतना बल है। उन्होंने कहा— “ध्रुव! अभी तो तुम्हारे खेलने-खाने का समय है, नन्हे-से बालक का सम्मान और अपमान क्या! संसार में अनेकों प्रकार की घटनाएँ घटती हैं और घटती रहेंगी। उनसे अज्ञानी ही दुःखी होते हैं, बुद्धिमान् कभी दुःखी नहीं होता। भगवान् जैसे रखें, वैसे ही रहना चाहिये। जिन्हें तुम प्रसन्न करना चाहते हो, उनका मिलना बहुत कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कठोर-से-कठोर तपस्या करके भी अनेक जन्मों में उन्हें नहीं प्राप्त कर सके हैं। इसलिये यह हठ छोड़ो, समय आने पर तपस्या भी कर लेना। जो प्रारब्ध से प्राप्त हो उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिये। जो अपने से अधिक गुणी हैं, उन्हें देखकर प्रसन्न होना चाहिये। जो अपने से कम गुणी हैं, उनसे सहानुभूति होनी चाहिये। जो अपने समान हैं, उनसे मित्रता करनी चाहिये। फिर दुःख का कोई कारण नहीं।”
देवर्षि नारद की ये बातें ध्रुव के मन में नहीं बैठीं। उन्होंने कहा— “भगवन्! आपने जिस समता और शान्ति का उपदेश किया है, वह बहुत ही उत्तम है। तथापि हमारे-जैसे लोगों के लिये तो वह बहुत ही कठिन है। मैं बड़ा ज़िद्दी हूँ, मेरे हृदय में क्षात्र-तेज प्रज्वलित हो रहा है। आपकी शीतल वाणी मेरे हृदय में नहीं ठहरती। आप मुझे वह रास्ता बतलावें जिससे मैं त्रिभुवन में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर सकूँ। आप ब्रह्मा के पुत्र हैं। त्रिलोकी का हित करने के लिये ही आप विचरण करते रहते हैं, भगवान्‌ की भक्ति और भगवान् के नामों का प्रचार ही आपका एकमात्र कार्य है। आप मुझे अवश्य भगवान् के पाने का मार्ग बताइये।”
ध्रुव की बात सुनकर नारद ने बहुत ही प्रसन्न होकर कहा— “भगवान् के चरणों की उपासना ही सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। लोक-परलोक, स्वर्ग-अपवर्ग जो कुछ तुम चाहते हो, सब उसी से प्राप्त होगा। तुम्हारी माता ने तुम्हें बड़ा ही सुन्दर मार्ग बतलाया है। तुम यहाँ से जाओ मथुरा, यमुना के पावन तटपर! भगवान् का वह नित्य निवास स्थान है। त्रिकाल यमुना में स्नान करना, नित्यकृत्य करके सुस्थिर आसन पर बैठ जाना और प्राणायाम करना। विषयों का चिन्तन छोड़कर शुद्ध चित्त से भगवान्‌ का ध्यान करना। मन-ही-मन देखना कि भगवान् मुझ पर प्रसन्न होकर प्रकट हुए हैं। उनका मुख बड़ा ही प्रसन्न है, मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं, आँखें प्रेमभरी हैं, तोते की चोंच-जैसी नासिका, धनुष-जैसी भौंहें, मरकत-मणि के समान सुन्दर कपोल, पंद्रह-सोलह वर्ष की अवस्था, लाल-लाल ओंठ, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स, गले में वनमाला, शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म से युक्त चार हाथ, पीताम्बर धारण किये हुए, किरीट-कुण्डल आदि अनेक आभूषणों से आभूषित श्यामसुन्दर, भक्तवत्सल करुणावरुणालय भगवान् मुझ पर, सारे जगत्पर अपार करुणा की वर्षा कर रहे हैं। उन्हें देखने में अपार आनन्द आ रहा है, हृदय के कमल पर खड़े हैं और उनकी नख-ज्योति अनेकों सूर्य के समान चारों ओर फैल रही है। इस प्रकार भगवान्‌ के मङ्गलमय रूप का ध्यान करोगे तो थोड़े ही दिनों में तुम्हारा मन लग जायग और इतना रस आयेगा कि फिर बाहर निकलेगा ही नहीं। तुम्हें में एक बड़ा ही गुप्त और महत्त्वपूर्ण मन्त्र बतलाता हूँ। वह यह है— ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय!’ तुम प्रेम से इसी का जप करना तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण होंगे।

देवर्षि नारद ध्रुव को उपासना की पूरी विधि बतलाकर वहाँ चले गये और ध्रुवने उनका आशीर्वाद ग्रहण करके मथुरा की यात्रा की।

किसी-किसी पुराण में ऐसी कथा आती है कि जब ध्रुव अपने महल से निकले, तब उन्हें रास्ता तो मालूम था ही नहीं। अपने उपवन में चले आये। वहाँ वे सोचने लगे क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कौन मेरी सहायता करेगा ? यही सब वे सोच रहे थे कि उन्हें अपने उपवन में ही सप्तर्षियों के दर्शन हुए। सिर नीचा करके ध्रुव उनके पास गये और अञ्जलि बाँधकर उन्होंने उनके चरणों में प्रणाम किया। ध्रुव ने कहा— “ऋषियो! मैं महाराज उत्तानपाद का पुत्र हूँ। मेरी माता का नाम सुनीति है। मैं घर छोड़कर भगवान् की आराधना करना चाहता हूँ, आप लोग मेरी सहायता करें।” तेजस्वी बालक के सरल स्वभाव और मधुर आकृति को देखकर ऋषियों को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने कहा— “बेटा ! तुम्हारे वैराग्य का क्या कारण है? जिनकी अभिलाषाएँ पूर्ण नहीं होतीं उन्हें वैराग्य हो जाता है। तुम तो सप्तद्वीपपति सम्राट् के पुत्र हो। तुम्हें भला क्या चाहिये ?” ध्रुव ने अपनी सारी कथा सुनायी और कहा—“जिस स्थान का उपभोग किसी और राजा ने न किया हो, जो सबसे ऊँचा हो तथा इन्द्रादि के लिये भी दुर्लभ हो वह स्थान मुझे चाहिये। आप भगवान् की आराधना का मार्ग बतलाइये।”

सप्तर्षियों ने एक स्वर से पृथक्-पृथक् इस बात का समर्थन किया कि “सम्पूर्ण सिद्धियों का मूल परम पुरुष परमात्मा की उपासना ही है। उन्होंने ही सारे संसार को धारण कर रखा है और उन्हीं के भ्रू-विलास से सारा जगत् स्थिर है। उनकी उपासना करो। तुम्हारी सारी अभिलाषाएँ पूर्ण होंगी।” ध्रुवने कहा– “ऋषियो! मैं बालक हूँ और साथ ही राजकुमार हूँ। मैं भगवान् विष्णु की कठिन आराधना किस प्रकार कर सकूँगा? जो सम्पूर्ण फलों को देने वाले हैं, उन्हें प्रसन्न करना अवश्य ही कठिन होगा। मैं क्या करूँ? मुझे आप लोगों की क्या आज्ञा है ?” सप्तर्षियों ने कहा— “बेटा! चिन्ता की कोई बात नहीं है। चलते-फिरते, सोते-जागते, बैठते-उठते सब अवस्थाओं में सर्वत्र भगवान् का स्मरण किया जा सकता है। उनके द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करते हुए उनके चतुर्भुज रूप का ध्यान करो। तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण होंगे।” सप्तर्षियों ने ध्रुव को उपासना की विधि बतलाकर वहाँ से यात्रा की और ध्रुव भी वहाँ से चलकर मथुरा के पास यमुनातट पर आ गये।